Friday, December 24, 2010

जी में आया तो उड़ चली
फिर क्या हवाएँ और क्या दिशाएँ
बाँध नही सकता , रोक नही सकता है कोई
मन की तो सीमा क्षितिज भी नहीं ..
अहसासों को अल्फाज़ों की लकीरों से बाँध रही हूँ
उम्मीदों की सतह पर कल की नींव डाल रही हूँ
कुछ कहीं, कुछ अनकही, कुछ उनसुनी ख्वाहिशों को
आज इस खत मैं लिखकर, खुदा को डाल रही हूँ..

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